Saturday, July 11, 2009

एडमीशन में रिजर्वेशन -- एक इतिहास


आजाद भारतमें अगर किसी बात को लेकर सबसे ज्यादा बहस हुइ है तो वह है रिजर्वेशन यानी आरक्षण. नौकरी में आरक्षण तक तो ठीक था लेकिन जब से शिक्षण और उच्च शिक्षण में आरक्षण की बात आगे बढी है लोग मरने - मारने पर उतारु हो गए हैं. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या शिक्षणमें आरक्षण नई बात है? मेरी मानों तो बिलकुल नहीं. इस देशमें सदिओं नहीं बल्कि युगों से आरक्षण की परंपरा रही है.

इतिहास छानने पर आरक्षण की जड़ वैदिक और पौराणिक काल तक पहुंचती नजर आएगी. आरक्षण के समर्थनमें एक दो नहीं दर्जनों सबूत मिलेंगे. आरक्षण को लेकर अबतक जिन जिन लोगोंने आवाज उठाइ उन्हें न सिर्फ मिटाया गया बल्कि गलत तरीके से आरक्षित सीटों में एडमिशन लेने वालों को कडी कीमत भी चुकानी पडी.

आइए महाभारत कालिन समय से इस परंपरा को जांचे. उस युगमें तो पूरा का पूरा गुरुकुल आरक्षित हुआ करता था. गुरु परशुराम के आश्रम में सिर्फ ब्राम्हणों को एडमिशन मिलता था तो विश्वामित्र के आश्रम में सिर्फ क्षत्रियों को एन्ट्री थी. द्रोणाचार्यनें तो एडमिशन के सारे अधिकार अपने पास आरक्षित रखते थे. वे सिर्फ उन्हीं छात्रों को शिक्षा दिया करते थे जोकि उनके नजरिए से कुल, गोत्र और जाति के मामले में साफ सुथरे हों ( साफ सुथरे के मानक वे खुद ही तय करते थे ). गुरुओं के गुरु यानी बृहस्पति सिर्फ और सिर्फ उन्हीं छात्रों को शिक्षण दिया करते थे जो कि देवलोक से तालुक रखते हों. वहीं शुक्राचार्य के आश्रम में दैत्यों को ही शिक्षण दिया जाता था. महाभारत कालिन यह परंपरा मध्ययुग और फिर आजादी के पहले तक जारी रही. गुप्तयुग के दौरान तक्षशीला विद्यापीठ में आचार्य चणक, वक्रनास जैसे आचार्यों को शिक्षक बनाने के लिए क्षत्रिय कुल से आपका तालुक होना जरुरी था और यह सारी बातें एडमीशन लेते समय आपको सिद्ध भी करनी पडती थी. आचार्य चणक के पुत्र यानी विष्णुगुप्त जनपदों के क्षत्रप या फिर राजाओं के बेटों को ही पढाते थे. इतना ही नहीं अपनी राजनैतिक सोच को अमली जामा पहनाने के लिए उन्होंने चन्द्रगुप्त का चयन इसीलिए किया क्योंकि चंद्रगुप्त पाटलीपुत्र के राजा नंद की ही औलाद थे. मध्ययुग के बाद भी यह सिलसिला जारी रहा. सन 1700 यानी अंग्रेजों के शासन के पहले तक इस देशमें शिक्षणमें जात पात के आधार पर एडमिशन मिलता रहा.

आजादी के बाद समयनें अपनी चाल बदली. अब न सिर्फ आरक्षण का स्वरुप बदला है बल्कि आरक्षण के लाभार्थी भी बदल चुके हैं. अब पहले की तरह पूरी की पूरी युनिवर्सीटी आरक्षित नहीं होती लेकिन उनमें मौजूद सीटोमें जाति आधारित आरक्षण होता है. पहले ब्राम्हण और क्षत्रिय लाभार्थी थे, अब क्षुद्रजाती आरक्षण में लाभार्थी हैं. यानी जिस जातिनें सदिओं तक ज्ञान पर अपना अधिकार जमा रखा था वे आरक्षण से बरखास्त हुए और जिन्हें सदिओं से पाठशाला से बेदखल रखा गया था वे लाभार्थी बनें.

आइए अब जानें कि आरक्षण में सेंधमारी करनेवालों का क्या हाल हुआ. परशुराम के आश्रममें कर्णको जाति के आधार पर एडमीशन मिला था लिहाजा पकडे जानेपर उसे ऐसा श्राप दिया गया और श्राप की वजह से अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण युद्धो में वो हारा. इतिहासमें कर्ण की गणना दानवीर के रुप में होती है ना कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रुप में. द्रोणाचार्य की चोरीछिपे शिक्षा लेनेवाले एकलव्य का अंगुठा उसके हाथ से अलग किया गया ताकि वह जीवनभर गान्डिव ही न चला सके. चाणक्यनें पाटलीपुत्र में जीत के बाद चन्द्रगुप्त को ही सत्ता कि बागडोर सौंपी.

इस आरक्षण प्रथा का हमेशा से ही विरोध होता रहा. विरोध करनेवाले प्रायः वो ही लोग थे जिन्हें आश्रमोंमें एडमिशन नहीं मिलता था. लेकिन विरोध कभी आरक्षण को रद्द नहीं करवा पाया.

लिहाजा, हमें आरक्षण को सहजता से स्वीकार करना चाहिए.

Monday, June 15, 2009

कितने चौकस हैं अंग्रेज...


मुंबई से सटे अलीबागमें में कुछ दिन पहले घूमने गया था. अच्छी जगह है, शांत - अकेली और सुकून देने वाली. अलीबाग में आधा दर्जनभर बीचेस् हैं और एकाद दो किले. इसके अलावा देखने लायक कोई खास जगह नहीं. हां, रात होते ही यहां मच्छरों का हमला जानलेवा होता है.

एक दिन अलीबाग रहकर दूसरे दिन मैं स्कूटर से मुरुड की ओर चला. चूंकि छुट्टीओं पर था, मौसम और नई जगह का पूरा मजा लेते हुए धीरे धीरे अपना सफर तय कर रहा था. रास्ते में एक ब्रिज आया करीब 200 मीटर लंबा, दिखने में काफी पुराना था - पत्थर से बना, सो मैंने स्कुटर रोका. कुछ तस्वीरें खींचने के लिए. आस पडोस पूछताछ करने पर पता चला कि इसे आक्शी का ब्रीज कहते हैं और इसकी उम्र 100 साल से ज्यादा है. कुछ तस्वीरे लेने के बाद मैंने फिर अपना सफर आगे बढाया. पूरे सफर के दौरान रास्तेमें कई ब्रिज आए - लगभग सारे पुराने.

मुरुड पहुंचने पर वहां के बीच का भरपुर लुत्फ उठाया. शाम को दोस्तों के साथ महफिल जमी. डिनर में दोस्तों के अलावा अनायास ही उस इलाके के पीडब्ल्यूडी अधिकारी भी मौजूद थे. खाने के बाद गप लड़ाते समय मैंने उस अधिकारी से कहा, ' आपके इलाके में ढेर सारे पुराने ब्रीजेस् हैं, मरम्मत होती है या नहीं'

मुस्कुराते हुए उस अधिकारी नें जवाब दिया, ' आप किसकी बात कर रहे हैं. उन पुराने ब्रीजेस् की जो कि अंग्रेज बना गए हैं. अरे! उसे तोड देने चाहिए ऐसा फरमान तो पिछले ही साल ब्रिटेन से भी आ चुका है. '


मुझे कुछ समझ में नहीं आया. लिहाजा उस अधिकारी ने पूरा माजरा समझाते हुए कहा कि यह सारे ब्रिज की लाइफलाइन खत्म हो चुकी है. यह बात भारत सरकार को भले ही ना पता हो. लेकिन ब्रीटेन सरकार को जरुर पता है. दरअसल ब्रीटिश सरकार के पीडबल्युडी विभागमें एक शाखा है, जो ब्रीटेन द्वारा उनकी कॉलोनीज् में बनाए गए निर्माणों का लेखा जोखा रखती है. इस शाखा के पास ब्रीटिश सरकार द्वारा भारत में बनाए गए सारे निर्माणों की पूरी पूरी जानकारी डिजाइन समेत मौजूद है. ब्रीटिश सरकार की इस पीडबल्युडी की शाखा ने पिछले दिनों अलीबाग के पीडबल्युडी विभाग को खत लिखकर बताया है कि अलीबाग के इन ब्रीजेस् की जिंदगी अब खत्म हो चुकी है और वे कभी भी धराशायी हो सकते हैं. लिहाजा, इन ब्रीजेस को या तो तोड़ दिया जाए या फिर नए ब्रीजेस् बनाए जाएं.


अधिकारी की बात सुनकर मैं अवाक हो गया. मेरे दिमाग में एक ही बात घूम रही थी कि कितने चौकस हैं अंग्रेज. उनके पास अलीबाग जैसे छोटे इलाके की भी अहम जानकारी मौजूद है. इतना ही नहीं अपनी नैतिक जिम्मेदारिओं को निभाते हुए वे चेता भी रहे हैं कि अब इन ब्रीज से गुजरना खतरे से खाली नहीं.


ता.क. -- इन सारे ब्रिजेस् का अभी भी इस्तेमाल किया जा रहा है. न ही इन्हें दुरुस्त किया गया है न ही किसी तरह की मरम्मत. शायद भारत सरकार किसी ब्रिज के ढहने का इंतजार कर रही है.

उत्तर मुंबई की मलाड सीट पर एक रस्साकशी भरा जंग जारी है। इस सीट पर इस समय किसका पलड़ा भारी है? गुजराती मिडडे में छपा हुआ मेरा लेख।