Thursday, November 13, 2014

बीजेपी ने विश्वास का मत कैसे जीता - मेरी आंखो देखी.

तमाम अखबार मे बीजेपी ने जिस तरह से विश्वास का मत जिता उसपर टिप्पणीया छपी है. जब विश्वास का मत पारीत हो रहा था उस समय मै महाराष्ट्र विधानसभा की पत्रकार गैलरी मे मौजुद था. तमाम घटनाक्रम बडे नाटकीय अंदाज मे हुए.
इस घटनाक्रम की रुपरेखा एक दिन पहले ही बन चुकी थी जिसका सबुत है विधानसभा के सचीव द्वारा एक दिन पहले तमाम विधायको को भेजा गया एजंडा. 11 तारीख की रात यानी विश्वास मत प्रस्ताव के एक दिन पहले विधायको को जो एजंडा भेजा गया था उसमे विपक्ष के नेता के चयन या मुद्दा नहीं था. लेकिन देर रात करीब 10.30 बजे एक नया एजंडा बना जो एसएमएस के माध्यम से तमाम विधायको को भेजा गया. इस नए एजंडा के पहले क्रम पर था स्पीकर का चयन, दुसरे क्रम पर था विपक्ष के नेता का चयन और तीसरे क्रम पर था विश्वास मत प्रस्ताव. विधायको को पहले भेजे हुए एजंडा मे विपक्ष के नेता के चुनाव को कोइ उल्लेख नहीं था. यह बदलाव किसने करवाया और क्यों यह आज भी रहस्य है. इस मामले पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने जांच ओर्डर की है.
देखने मे छोटी लगने वाली यह 'विपक्ष के नेता' के चयन की बात इतनी टैकनिकल है कि कोताही बरतने पर विश्वास मत के दौरान बीजेपी को परेशानी झेलनी पड सकती थी. 10 तारीख को यदि नवनिर्वाचीत स्पीकर एजंडा के अनुसार विपक्ष के नेतापद का चयन विश्वास मत के प्रस्ताव से पहले करते तो उसके परिणाम बीजेपी को विश्वास मत के समय भुगतने पडते. मसलन, विपक्षी नेता की मांग पर वोटींग होता, विपक्षी नेता की मांग पर तमाम नेताओ के भाषण होते और यह तमाम चीज बीजेपी को अडचन मे ला सकती थी.
लेकिन एसा कुछ भी नहीं हुआ. हाउस शुरु होते ही पहले अध्यक्ष का चयन हुआ और फिर तमाम नेताओ ने अध्यक्ष को बधाई देते हुए भाषण किए. आभार प्रदर्शन समाप्त होने पर अध्यक्ष के एक भी मिनट न गंवाते हुए घोषणा कर दी कि पहले विश्वास मत पारीत होगा और फिर विपक्षी नेता चुना जाएगा. स्पीकर के इस फैसले पर कोंग्रेस और शिवसेना कुछ बोलना चाहते थे. लेकिन समय गंवाए बीना सत्ता मे बैठे बीजेपी के नेता आशीष शेलार ने विश्वास मत पेश कर दिया. शोरशराबे के बीच स्पीकर ने घोषीत कर दिया कि मतदान ध्वनी से होगा और पहली घोषणा हुई की जिन्हे सरकार के समर्थन मे मत देना हो वह हां कहे. यह बात सुनते ही बीजेपी के तमाम विधायक खडे हुए और हां..... हां..... चिल्लाने लगे. इस समय एनसीपी के तमाम विधायक चुप बैठे रहे. किसी ने हां नहीं कहा. जब यह शोर शराबा चल रहा था तब कोंग्रेस और शिवसेना के विधायक अपनी विपक्ष के नेतापद के चयन की मांग को लेकर स्पीकर के पास जा रहे थे. हां.... की आवाज खत्म होने पर स्पीकर ने कहा -  विरोध मे... और इसके जवाब मे किसी ने ( कोंग्रेस और शिवसेना ने भी ) नां.... नहीं कहा. एक क्षण मे फैसला सुनाते हुए स्पीकर ने कहा कि हां की आवाज मुझे सुनाई दी और विश्वास मत पारीत हुआ.
जैसे ही अध्यक्ष ने विश्वास का मत पारीत कर दिया कोंग्रेस और शिवसेना के विधायक ने वोटींग की मांग की, लेकिन एजंडा आगे जा चुका था और अब वोटींग का सवाल ही नहीं था. मसलन, बहुमती साबीत हो गई. यह बात समज मे आते ही कोंग्रेस और शिवसेना ने भारी हंगामा खडा कर दिया. स्पीकर ने हाउस को एडजोर्न कर दिया. मामला खत्म....
यह पुरा वाकया 5 मिनट के भीतर खत्म हुआ. लेकिन टैक्नीकल बारीकी देखे तो बीजेपी ने काम चालाकी से कर लिया है. विपक्ष का नेता पहले नहीं चुनकर शिवसेना को संवैधानिक अधिकार से अलग रखा. वहीं एनसीपी ने 'हां' भी नहीं कहा और 'ना' भी नहीं कहा. यानी टथस्त रहते हुए उसने सरकार बनवा दी. वहीं विपक्ष के नेता के चयन की मांग मे मसरुफ शिवसेना और कोंग्रेस को इस बात का खयाल ही नहीं रहा की राजनैतिक दांवपेच उनके हाथ से खिसक रहा है. सही समय पर वोटींग न मांगने से एनसीपी की भूमिका गुलदस्ते मे रही. वहीं बीजेपी के एनसीपी के साथ क्या संबंध है उसको लेकर ओन रिकार्ड कुछ न आ सका.

उफ... कितनी बडी राजनैतिक गलती. खैर, सरकार बन चुकी है. अब 6 महिने से पहले अविश्वास का प्रस्ताव पेश नहीं हो सकता. तब तक फडनवीस सरकार कैसा काम करती है यह देखना दिलचस्प होगा. खासतौर पर 8 दिसंबर से शुरु हो रहा नागपुर अधिवेशन बीजेपी की अल्पमत सरकार कैसे सफलतापुर्वक काटती है और प्रस्ताव कैसे पारीत करवाती है यह आने वाला समय ही बताएगा.  

Wednesday, November 12, 2014

बीजेपी के समर्थन से एनसीपी को क्या लाभ मिलेगा.

सरकार बनाने मे अहम भूमिका रही एनसीपी की. लेकिन पावर पोलिटीक्स मे माहिर पवार को यह कदम उठाने से क्या लाभ हुआ. आने वाले समय मे कौन से कौन से मुद्दो पर बीजेपी को एनसीपी के बारेमे नर्म रुख अख्त्यार करना पडेगा यह देखना दिलचस्प होगा. 

राजनिती मे कई कदम बेहद शातीर तरीके से लिए जाते है. महाराष्ट्र मे बीजेपी की सरकार बनते ही मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने सहकार मंत्री चंद्रकांत पाटील के साथ मिलकर एक एसा ही फैसला लिया. तारीख थी ६ नवंबर, देर शाम मंत्रालय मे हुई बैठक मे महाराष्ट्र की 302 बाझार समिती यानी एपीएमसी मे से 100 एपीएमसी कमिटीओ को एक्सटेन्शन देने से मना कर दिया गया. यह वो एपीएमसी है जिनकी मियाद ५ साल की होती है और सरकार यदि चाहे तो उसे एक्सटेन्शन दे सकता है. अक्तूबर मे पुरे होने वाले इन तमाम एपीएमसी कमिटीओ को सरकार चाहे तो फिर एक बार काम करने की इजाजत दे सकती है. लेकिन यह नहीं हुआ. अब यहां चुनाव होने की लंभावना है. इतना ही नहीं इन एपीएमसी मे एडमिनीस्ट्रेटरो को नियुक्त कर दिया जा सकता है. जिन एपीएमसीओ को एक्सटेंशन नहीं दिया उनमे वाशी एपीएमसी मार्केट भी शामिल है जोकि राज्य की सबसे ज्यादा टर्नओवर करने वाली एपीएमसी भी है. इसके अलावा पूणे, अमरावती, दादरा नगर हवेली की एपीएमसी भी शामिल है. कहने की जरुरत नहीं कि इन एपीएमसीओ मे एनसीपी और कोंग्रेस का दबदबा है. खासतौर पर एनसीपी. सबको पता  है कि एनसीपी की राजनिती की रीढ की हड्डी है सहकार क्षेत्र की इकाईयां. यहीं उनके कार्यकर्ता और नेता काम करते है यहीं से लोगो को संपर्क मे आते है और यहीं से उनकी गांव की राजनिती शुरु होती है. सरकार के इस एक फैसले से सहकार क्षेत्र मे हडकंप मच गया. क्या यहीं से बीजेपी की राजनिती शुरु हुई.  

अब इन एपीएमसी मे ६ महिनो के बाद चुनाव होंगे. इन चुनावो मे सरकार की भूमिका अहम होगी. एनसीपी यदि सरकार से दो दो हाथ कर ले तो उसे महंगा पड सकता है. वहीं सींचाई घोटाले की फाईले सरकार के पास मौजु है. एनसीपी के कई वरिष्ठ नेताओ के नाम इन फाईलो मे नामजत है. सरकार चाहे तो इनपर इन्कवाईरी शुरु कर सकती है जिसका नतीजा एनसीपी के लिए भयानक हो सकता है. इसके अलावा एनसीपी के नेताओ के खिलाफ बीजेपी के नेता किरीट सोमैया ने कोर्ट मे कई केस कर रखे है. आय से अधिक संपत्ती से लेकर सरकारी काम मे कोताही के आरोप है. इन तमाम केसीस की कमान बीजेपी के याचीका कर्ताओ के पास है. एसेमे एनसीपी ने जो रुख हाउस मे लिया है वह रुख आने वाले दिनो मे उन्हे क्या क्या लाभ पहुंचाता है वह देखना दिलचस्प होगा. क्या यहीं तमाम मामले पवार साहब की पावर डील है. सवाल का जवाब आनेवाले दिनो मे मिलेगा.





Monday, November 10, 2014

शिवसेना अपने सबसे कमजोर दौर मे.

शिवसेना को चुनाव मे भले ही दूसरे क्रम की सबसे ज्यादा सीट मिली हो, लेकिन निर्णय लेते समय जो ढीलाई हो रही है उससे पक्ष और पक्ष अध्यक्ष उद्धव ठाकरे की इमेज को ठेस पहुंच रही है. खास तौर पर शिवसैनिको को यह ढीला-ढाला रवैया बिलकुल पसंद नहीं है. उद्धव ठाकरे ने अनिल देसाई को मंत्री बनाने का फैसला किया. लेकिन आनंदराव अडसूळ और चंद्रकांत खैरे जैसे वरिष्ठ नेताओं ने स्पष्ट विरोध जता दिया. कई पत्रकारों को फोन के माध्यम से उन्होने अपनी नाराज़गी बताई. नतीजा यह रहा ही उद्धव ठाकरे को एन वक्त पर अनिल देसाई को दिल्ही से मुंबई वापस बुलाना पडा. मंत्री मंडल मे शिवसेना का एक भी मंत्री नहीं जा पाया. सूत्र की माने तो सुरेश प्रभु को बीजेपी के कोटे से मंत्री बनाने की शिवसेना ने मांग की थी जोकि बीजेपी ने मान ली ( क्योंकि बीजेपी के कोटे से मंत्री बनने पर राज्य सभा मे सांसद बनाने की जिम्मेदारी भी बीजेपी की ही होगी). लेकिन राजनीति के यह तमाम खेल शिवसैनिको को नहीं पता है. नतीजा यह हुआ की अनिल देसाई के मुंबई एयरपोर्ट पहुंचने पर तमाशा हुआ और पूरे तमाशे को एन्टी बीजेपी के रुप मे देखा गया.
आनन फानन मे शिवसेना की जो बैठक हुई उसमे जो रवैया उद्धव ठाकरे ने अपनाया उससे शिवसैनिकों मे नाराज़गी और भी बढ़ी है. आम कार्यकर्ता यह समझ रहा था कि बीजेपी के साथ गठबंधन की संभावना समाप्त होगी और शिवसेना का कोई विधायक विपक्ष नेता पद पर आसीन होगा. लेकिन एक बार फिर एसा नहीं हुआ. शिवसेना ने जो शर्तें बीजेपी के सामने रखी है वह हास्यास्पद है. शिवसेना बीजेपी के बीच की बातचीत एक चूहे बिल्ली के खेल की तरह बन चुका है. बीजेपी का बर्ताव एसा है मानो उन्हे समर्थन की दरकार नहीं है. वहीं शिवसेना का बर्ताव एसा लग रहा है कि वो समर्थन देना तो चाहती है लेकिन अपनी शर्तों पर.
मौजूदा वातावरण मे शिवसेना अपने सबसे कमजोर दौर मे दिख रही है.  

उत्तर मुंबई की मलाड सीट पर एक रस्साकशी भरा जंग जारी है। इस सीट पर इस समय किसका पलड़ा भारी है? गुजराती मिडडे में छपा हुआ मेरा लेख।