शिवसेना को चुनाव मे भले ही दूसरे क्रम की सबसे ज्यादा सीट मिली हो, लेकिन निर्णय लेते समय जो ढीलाई हो रही है उससे पक्ष और पक्ष अध्यक्ष उद्धव ठाकरे की इमेज को ठेस पहुंच रही है. खास तौर पर शिवसैनिको को यह ढीला-ढाला रवैया बिलकुल पसंद नहीं है. उद्धव ठाकरे ने अनिल देसाई को मंत्री बनाने का फैसला किया. लेकिन आनंदराव अडसूळ और चंद्रकांत खैरे जैसे वरिष्ठ नेताओं ने स्पष्ट विरोध जता दिया. कई पत्रकारों को फोन के माध्यम से उन्होने अपनी नाराज़गी बताई. नतीजा यह रहा ही उद्धव ठाकरे को एन वक्त पर अनिल देसाई को दिल्ही से मुंबई वापस बुलाना पडा. मंत्री मंडल मे शिवसेना का एक भी मंत्री नहीं जा पाया. सूत्र की माने तो सुरेश प्रभु को बीजेपी के कोटे से मंत्री बनाने की शिवसेना ने मांग की थी जोकि बीजेपी ने मान ली ( क्योंकि बीजेपी के कोटे से मंत्री बनने पर राज्य सभा मे सांसद बनाने की जिम्मेदारी भी बीजेपी की ही होगी). लेकिन राजनीति के यह तमाम खेल शिवसैनिको को नहीं पता है. नतीजा यह हुआ की अनिल देसाई के मुंबई एयरपोर्ट पहुंचने पर तमाशा हुआ और पूरे तमाशे को एन्टी बीजेपी के रुप मे देखा गया.
आनन फानन मे शिवसेना की जो बैठक हुई उसमे जो रवैया उद्धव ठाकरे ने अपनाया उससे शिवसैनिकों मे नाराज़गी और भी बढ़ी है. आम कार्यकर्ता यह समझ रहा था कि बीजेपी के साथ गठबंधन की संभावना समाप्त होगी और शिवसेना का कोई विधायक विपक्ष नेता पद पर आसीन होगा. लेकिन एक बार फिर एसा नहीं हुआ. शिवसेना ने जो शर्तें बीजेपी के सामने रखी है वह हास्यास्पद है. शिवसेना बीजेपी के बीच की बातचीत एक चूहे बिल्ली के खेल की तरह बन चुका है. बीजेपी का बर्ताव एसा है मानो उन्हे समर्थन की दरकार नहीं है. वहीं शिवसेना का बर्ताव एसा लग रहा है कि वो समर्थन देना तो चाहती है लेकिन अपनी शर्तों पर.
मौजूदा वातावरण मे शिवसेना अपने सबसे कमजोर दौर मे दिख रही है.
आनन फानन मे शिवसेना की जो बैठक हुई उसमे जो रवैया उद्धव ठाकरे ने अपनाया उससे शिवसैनिकों मे नाराज़गी और भी बढ़ी है. आम कार्यकर्ता यह समझ रहा था कि बीजेपी के साथ गठबंधन की संभावना समाप्त होगी और शिवसेना का कोई विधायक विपक्ष नेता पद पर आसीन होगा. लेकिन एक बार फिर एसा नहीं हुआ. शिवसेना ने जो शर्तें बीजेपी के सामने रखी है वह हास्यास्पद है. शिवसेना बीजेपी के बीच की बातचीत एक चूहे बिल्ली के खेल की तरह बन चुका है. बीजेपी का बर्ताव एसा है मानो उन्हे समर्थन की दरकार नहीं है. वहीं शिवसेना का बर्ताव एसा लग रहा है कि वो समर्थन देना तो चाहती है लेकिन अपनी शर्तों पर.
मौजूदा वातावरण मे शिवसेना अपने सबसे कमजोर दौर मे दिख रही है.
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