हाल फिलहाल के राजनीतिक परिदृश्य में सबसे ज्यादा चर्चा में
रहने वाले डायलॉग कुछ एसे हैं.
“ राहुल गांधी जनेऊ धारी ब्राह्मण
है “ “ मैं कैलाश मान सरोवर की यात्रा पर जाना चाहता हूं “ “ कांग्रेस की रगों में ब्राम्हण का खून है “ “ हम चुनाव जीत गए तो हर तह सील में गौ शाला बनेगी “ “ हमें मुस्लिम पार्टी के रूप में प्रोजेक्ट करने में अन्य दल कामयाब रहे “ “ नेपाल की होटल में राहुल गांधी ने मांस आहार किया “ “ BJP राम मंदिर बनाने के लिए कटिबद्ध है “
इतने सारे “डायलॉग” सुनने के बाद देश के हिंदुओं को ऐसा लग रहा होगा कि राजनीति में अब उनके वोटों की अहमियत पहले से ज्यादा बढ़ गई है. साल 2019 तक देश के हिंदुओं को ऐसा भी लगेगा की राजनीति में सिर्फ हिंदुओं का ही बोल बाला है. बीजेपी हिंदुओं को मनाने के लिए सरकारी स्तर पर फैसले लेगी, वहीं कांग्रेस पार्टी अपने 50 सालों के “एंटी हिंदू स्टैंड” को धोने के लिए मंदिर-मंदिर माथा टेकेगी. लेकिन इस मौके पर यह सवाल तो बनता ही है कि ‘तक साधु’ हिंदुत्व का बोल-बाला इतना ज्यादा क्यों बढ गया? इस सवाल का जवाब ढूंढने के लिए हमे 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजो का ‘एनालिसीस‘ करना होगा. वोटिंग पैटर्न, पूरे देश के वोटरों की पसंद- नापसंद, अलग-अलग पॉकेट में लोगों का बदला हुआ मिज़ाज, छोटे-छोटे राजनीतिक दलों की अगली रणनीति यह सब कुछ अब हमारे सामने है. हालांकि इन तमाम आंकड़ों का “एनालिसीस” होने में करीब 3 साल जितना वक्त लग गया. लेकिन अगली राजनिती इसी के आधार पर होनी है.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजे बीजेपी के लिए अप्रत्याशित रहे इसकी वजह सिर्फ और सिर्फ “वोट बैंक पॉलिटिक्स” है. आज़ादी के बाद से साल 2014 तक हिंदू वोट बैंक हमेशा बटा रहा. जबकि मुस्लिम, दलित, आदिवासी और अन्य वोट बैंक कांग्रेस के साथ खड़े दिखे. यही वजह थी कि साल 2014 तक देश की राजनीति में कांग्रेस का दबदबा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तब उनकी छाप एक हिंदू नेता के रूप में थी. विकास तो सिर्फ एक बहाना था, गुजरात का मॉडल दुनिया को दिखाना था. चमचमाती हुई सड़कें, 24 घंटा बिजली, नर्मदा परियोजना, सिंचाई के लिए केनल का नेटवर्क और उद्योगपतियों द्वारा अरबों का निवेश. इसी फार्मूले पर प्रधानमंत्री के रुप में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पेश किया गया. उत्तर प्रदेश की जन सभाओं में मंच पर भगवान श्री राम की तस्वीर लगी रहती थी.
प्रचार करते वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र कई बार भगवे रंग के जैकेट, खादी के केसरी रंग के कपड़े, भगवे रंग की गड़ी इस तरह की वेषभूषा में नजर आते थे. इससे ठीक उलट भ्रष्टाचार से घिरी हुई कांग्रेस पार्टी मुसलमान, दलित, आदिवासी और अन्य समुदाय के लोगों की खुशामद करते हुए नजर आई. नतीजा साफ दिखा हिंदू वोट बैंक एक हो गई जबकि अन्य तबके के मतदाता अलग-अलग पार्टियों के बीच में विभाजित हो गए. इसके बाद चंद सालों तक कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा चुनाव के दौरान कि अपनी ग़लतियों को दोहराना
जारी रखा. नतीजा साफ रहा, देश के 21 राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन गई. कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व राहुल गांधी करेंगे यह फैसला नहीं होने तक कांग्रेस कमजोर थी. लेकिन अब मामला पलट गया है. अब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व के पास सारे आंकड़े मौजूद हैं और पार्टी के भीतर भी नेताओं की लगाम कस ली गई है. नई रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी की नजर साल 2019 नहीं बल्कि साल 2024 के लोकसभा चुनाव पर हैं. यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी इस समय हिंदुओं की खुशामद खोरी में लगी हुई
है. एक जमाने में कपिल सिब्बल प्रेस कॉन्फ्रेंस के माध्यम से मीडिया के सामने बताते थे कि दलित, पिछड़े, मुस्लिम और अन्य छोटी जमात उनके साथ है ऐसे में उन्हें हिंदू वोटों की जरूरत ही नहीं है. यह कपिल सिब्बल इस समय हाशिए में धकेल दिए गए हैं. बाबरी मस्जिद का केस कपिल सिब्बल लड़ रहे थे जिससे लोगों के मन में यह भावना थी कि कांग्रेस राम मंदिर के खिलाफ है. अब कपिल सिब्बल राम मंदिर की सुनवाई के समय न कोर्ट जाते हैं और ना ही पत्रकार से बात करते हैं. कांग्रेस पार्टी का मकसद सिर्फ
इतना है हिंदू वोट किसी तरह टूटे-बिखरे और उसमें BJP के प्रति संभ्रम पैदा हो. दरअसल कोंग्रेस की इस नई राणनीति की शुरुआत गुजरात के चुनाव से हुई. गुजरात के चुनाव के दौरान कांग्रेस पार्टी ने मुसलमानों की खुशामद खोरी नहीं की. पूरे चुनाव के दौरान गोधरा कांड या फिर साल 2002 के दंगों का उल्लेख तक नहीं किया. गुजरात पुलिस द्वारा किए गए इन काउंटरों के बारे में एक शब्द भी नहीं बोला. इस से उलट राहुल गांधी मंदिर दर मंदिर भटक रहे थे. एक भी मस्जिद में उन्होंने माथा नहीं टेका. हार्दिक पटेल के साथ कांग्रेस
पार्टी कंधे से कंधा मिलाकर चल रही थी. नतीजा बिल्कुल साफ रहा कि करीब 12 फ़ीसदी जितने पाटीदार मतदाता कांग्रेस के पास लौट आए. कांग्रेस चुनाव नहीं जीत पाई लेकिन उसे बीजेपी को बहुमत से दुर रखने का मंत्र मिल गया. अब इसी रणनिती का दूसरा संस्करण मध्यप्रदेश और राजस्थान में देखने को मिल रहा है. प्रतिष्ठित संस्थानों से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक यह दोनों ही राज्य बड़े हद तक शाकाहारी हैं, यहां के वोटर हिंदूवादी मानसिकता के हैं और उन्हें लुभाना अब पहले की तरह आसान नहीं. इन तमाम समीकरणों को
ध्यान में रखते हुए राजस्थान में कांग्रेस पार्टी ने ब्राम्हण राजनीति का दांव खेला है. कांग्रेस के नेता खुलकर बता रहे हैं कि कांग्रेस पार्टी की रगो में ब्राह्मण का खून है. यहां अब मुस्लिम खुशामद खोरी बंद हो चुकी है. कुछ ऐसा ही दाव मध्यप्रदेश में कमलनाथ ने खेला है. एक जमाने में बीजेपी के वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने बताया था कि बीजेपी का मतलब है ‘कांग्रेस माईनस काऊ’. यानी कांग्रेस पार्टी में गाय का महत्व नहीं है इसी वजह से बीजेपी कांग्रेस पार्टी से अलग है. इसी फार्मूले पर अमल करते हुए कमलनाथ ने वादा किया है कि चुनाव जीतने पर वह मध्य प्रदेश की हर एक तहसील में एक गौशाला खोलेंगे. राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी इस राजनीति को आगे बढ़ाते हुए कैलाश मानसरोवर की यात्रा पर निकल पड़े हैं. कांग्रेस पार्टी का मानना है कि हिंदुओं के वोट पाने के लिए उन्हें कुछ वक्त जरूर लगेगा लेकिन वह सफल होंगे. केंद्र सरकार ने एससी एसटी एक्ट में बदलाव कर दिया जिसके खिलाफ सवर्णों ने भारत बंद का ऐलान किया. इस भारत बंद में कांग्रेस के नेताओं ने पर्दे के पीछे बड़ी अहम भूमिका निभाई. कांग्रेस चाहती है कि हिंदुओं का एक बहुत
बड़ा तबका बीजेपी को वोट ना दें. इसके लिए वह हर तमाम कोशिश कर रही है. कांग्रेस के इस बदले हुए तेवरों से बीजेपी में भी हड़कंप मचा हुआ है. यही वजह है कि कैलाश मानसरोवर की यात्रा से पहले राहुल गांधी ने नेपाल की होटल में मांसाहार का सेवन किया यह आरोप लगाया गया. हकीक़त यही है सत्ता में आने के बाद भी बीजेपी राम मंदिर नहीं बना पाई है. यदि हिंदू वोट बट गया तो अगले चुनाव से हिंदुओं का राजनीतिक महत्व हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा. हिंदू ‘बटेगा’ तो राजनीतिक रूप से ‘कटेगा’. अब यह फैसला देश के हिंदू संप्रदाय के लोगों को करना है कि उसे देश की कमान किसे सौंपनी है.
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