चुनाव में कौन आगे रहेगा और किसे कितनी सीट मिलेगी इसका बहुत बड़ा आधार चुनाव किस एजेंडे के तहत लड़ा जा रहा है उसपर होता है। आम आदमी इसे चुनावी मुद्दा भी कहते हैं। लेकिन चुनावी मुद्दा यह चुनाव के एजेंड़ा से अलग होता है, वह चुनाव के एजेंडा से निकला हुआ एक बिंदु मात्र है।
कोई भी बड़ा राजनीतिक दल जो किसी देश की अगुवाई करना चाहता हो उसे सफलता एक ही झटके में नहीं मिलती। बल्कि उस दल को अपनी भूमिका रखने में और चुनाव से पहले एक भूभाग में या एक समुदाय के बीच एजेंडा सेट करने में कई साल निकल जाते हैं, कई बार तो दशक भी निकल जाते हैं। इसे चुनाव का विज्ञान कहते हैं। महज एक ही दिन में खड़ी हुई पार्टी या दल या फिर कुछ लोगों का समुह कोई बहुत बड़ी सफलता हासिल नहीं कर सकता। यदि उसे सफलता मिल भी जाए तब भी वह क्षणिक और छोटी होती है।
ऐसा जरूरी नहीं है कि हमेशा ही राजनीतिक दल चुनाव का एजेंडा सेट करें। बल्कि कई बार सरकार की नीतियों से परेशान आम जनता भी चुनाव का एजेंडा खुद तय करती है। कुछ ऐसा समझ लीजिए की जनता जिन मुद्दों को सबसे ज्यादा अहमियत देती है उसे एजेंडा के रूप में मानकर वोटिंग करती है। जैसा कि हमने दिल्ली के चुनाव में देखा जहां कई सालों तक सत्ता पर काबीज कांग्रेस पार्टी को जनता ने नकार दिया और आम आदमी पार्टी की सरकार बनी। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में विपक्ष यानी मौजूदा भारतीय जनता पार्टी ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया संसद से लेकर कोर्ट और सड़क तक अपने मुद्दे को पहुंचाया और आखिरकार जनता ने इस एजेंडा का स्विकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी को बहुमत दिया।
मौजूदा समय में अभी भी यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि भारत की जनता किस मुद्दे को एजेंडा के रूप में व्यापक स्वीकृति दे रही है। पूरा का पूरा देश किस मामले पर वोट करेगा यह अभी अस्पष्ट है। बल्कि हम यह कह सकते हैं कि इस समय राष्ट्रीय स्तर पर किसी एक मुद्दे की स्वीकृति आम जनता के बीच पूर्ण रूप से नहीं मिल पाई है। यदि किसी एक मुद्दे को लेकर जनता एकत्रित हुए हैं तो वह राष्ट्रीय सुरक्षा है।
गौर से देखा जाए तो चुनाव का एजेंडा कांग्रेस पार्टी बीजेपी से ज्यादा बेहतर ढंग से सेट कर रही थी। देश की प्रशासनिक व्यवस्था में उथल-पुथल का पूरा लाभ कांग्रेस पार्टी ने लिया। स्टेटिस्टिक्स डिपार्टमेंट के आंकड़े कांग्रेस के समर्थन में आए। नतीजा यह रहा की बेरोज़गारी, प्रशासनिक व्यवस्था में गड़बड़ी और जातीय हिंसा इस मसले को दिसंबर 2018 तक खूब उछाल मिला। राफेल विमान के घोटाले का मुद्दा उठाकर सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भ्रष्टाचार में लिप्त बताया गया। ठीक उसी वक्त एक महागठबंधन की बात भी छिड़ी, ऐसा लग रहा था कि पूरा का पूरा विपक्ष एक मंच पर आने के बाद अब मोदी के खिलाफ कड़ी चुनौती मौजूद है। लेकिन जनवरी 2019 के बाद इन तमाम मसलों की हवा निकल गई।
महागठबंधन बन नहीं पाया और फिर एक बार राष्ट्रीयता के मुद्दे पर पूरा देश एक साथ खड़ा दिखाई देने लगा। रफेल के मामले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बहुत बड़ा जनाधार जो कांग्रेस के साथ खड़ा दिखाई दे रहा था, वह तितर-बितर हो गया, महागठबंधन में फूट पड़ने की वजह से मोदी विरोधी वोट अब पूरी तरह से बट चुके हैं, प्रशासनिक व्यवस्था में गड़बड़ी अब पुराना मुद्दा है, जातीय वाद यह मसला सिर्फ उन्हीं लोगों तक सीमित रह गया है जो इस मुद्दे से अपना लाभ लेना चाहते हैं या फिर इस मुद्दे की वजह से जो पीड़ित हैं। कुल मिलाकर कांग्रेस की रणनीति दिसंबर 2018 तक तो पूरी तरह से ठीक रही और एजेंडा सेट करने के मामले में वह सबसे आगे निकल गई लेकिन भारत और पाकिस्तान के मसले के बाद लोगों का ध्यान राष्ट्रीय मुद्दे पर चला गया। अब एक बार फिर कांग्रेस पार्टी वहीं मुद्दों को लेकर आगे बढ़ना चाहती है जिसे 3 महीने का ब्रेक मिल चुका है।
वहीं दूसरी और भारतीय जनता पार्टी राष्ट्रवाद की बात को लेकर लोगों को एक सूत्र में बांधने की कोशिश कर रही है। भारतीय जनता पार्टी ने अपनी सहयोगी पार्टियों के साथ मनमुटाव मिटा दिया और फिर एक बार एनडीए का गठन हो गया।
मोटे तौर पर ऐसा लग रहा है कि इस चुनाव में लोगों की राय बटी हुई है, दोनों ही प्रमुख दल चुनाव का एजेंडा सेट करने में नाकामयाब रहे हैं। ऐसे में चुनाव के लिए जो मुद्दे हैं वह व्यक्तिगत रूप से मूल्यांकन होने के बाद वोटिंग में तब्दील होगा।
मतलब साफ है कि भारत देश में इस चुनाव का एजेंडा सेट करने में तमाम राजनीतिक दल विफल हुए हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बिखरे हुए मुद्दों के साथ क्या जनाधार भी बिखरा हुआ होगा?
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